गुरुपौर्णिमा पर व्यास पूजन की प्रासंगिकता

गुरुपौर्णिमा पर व्यास पूजन की प्रासंगिकता

गुरुपौर्णिमा पर व्यास पूजन की प्रासंगिकता

गुरुपौर्णिमा पर व्यास पूजन की प्रासंगिकता

भारत की समृद्धशाली गुरु-शिष्य परंपरा जिसकी आधारशिला श्रद्धा, सेवा, समर्पण और ज्ञान पर टिकी है। एक ऐसी संस्कृति जहाँ गुरु अपने शिष्य को अज्ञान से बाहर निकालकर आत्मबोध की ओर ले जाता है। इसी क्रम में व्यास पूजन का महत्व समझा जा सकता है जो गुरु-पूर्णिमा के दिन ज्ञान के प्रतीक महर्षि वेदव्यास को समर्पित है।

गुरु-पूर्णिमा के दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यह केवल औपचारिकता नहीं बल्कि एक गहन भावनात्मक और आध्यात्मिक संबंध को पुनः पुष्ट करने का अवसर होता है। व्यास पूजन गुरु के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और सम्मान की अभिव्यक्ति है।

गुरु-शिष्य परंपरा का प्रारंभ वैदिक काल से माना जाता है। उस समय विद्यार्थी (शिष्य) गुरुकुलों में रहकर गुरुओं के निर्देशन में अध्ययन करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि चारित्रिक निर्माण, नैतिकता, जीवन मूल्य, धर्म-अध्यात्म और व्यवहारिक जीवन के कौशल भी सिखाए जाते थे।

तभी तो गुरु को जीवन के हर क्षेत्र में शिष्य का मार्गदर्शक माना गया है। उपनिषदों, महाभारत, रामायण और अन्य ग्रंथों में गुरु की भूमिका को अत्यंत सम्मानजनक बताया गया है। शिष्य और गुरु के बीच का संबंध मात्र शिक्षक और विद्यार्थी का नहीं, बल्कि आत्मीयता और विश्वास का होता था।

स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस का उदाहरण यहाँ अनुकरणीय है जहाँ स्वामी
विवेकानंद जी को उनके गुरु ने आत्मबोध की ओर प्रवृत्त किया और यही कारण है कि वे आज भी युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बने हुए हैं।

अब प्रश्न उठता है कि एक गुरु में क्या गुण होने चाहिए एवं शिष्य की योग्यता क्या हो ?
एक सच्चे गुरु में विवेक, करुणा, धैर्य, ज्ञान, समर्पण और निःस्वार्थता जैसे गुण होते हैं। वहीं एक योग्य शिष्य में श्रद्धा, विनम्रता, जिज्ञासा, सेवा-भावना और अभ्यास होना आवश्यक है।
यदि शिष्य निष्ठावान है और गुरु योग्य, तो समाज में परिवर्तन अवश्यंभावी होता है।

यही गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय सभ्यता की रीढ़ है। यह परंपरा केवल ज्ञान के हस्तांतरण का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के संवाहक के रूप में कार्य करती रही है। व्यास पूजन और गुरु-पूर्णिमा हमें यह स्मरण कराते हैं कि एक सच्चे गुरु के बिना जीवन का मार्गदर्शन संभव नहीं है। आधुनिक युग में भी, चाहे शिक्षा प्रणाली कितनी ही उन्नत हो जाए, गुरु का स्थान कभी नहीं लिया जा सकता।

अतः हमें चाहिए कि हम अपने गुरुओं का सम्मान करें, उनसे ज्ञान ग्रहण कर जीवन को सार्थक बनाएं, और इस महान परंपरा को जीवित रखते हुए आने वाली पीढ़ियों तक इसका प्रकाश पहुँचाएं।

 वर्तमान समय में कहीं-कहीं छात्रों के मन में अपने अध्यापकों के प्रति दृष्टि को लेकर समाचार पत्रों में कई प्रकार की घटनाएं सुनने व देखने को मिलती हैं। उच्च शिक्षा में तो ऐसी घटनाएं अक्सर ही सुनने को मिलती है। अतः विद्यालय शिक्षा से प्रारंभ कर उच्च शिक्षा तक गुरु वंदन कार्यक्रम अनिवार्य करने की आवश्यकता है।  छात्रों के मन मस्तिष्क में अंकित करने वाला पूर्णतः भावात्मक आयोजन व्यास पूजा है। भारत में शिक्षा प्रक्रिया में केंद्रवर्ती कारक गुरु और शिष्य ही हैं। भारतीय विचार में यह दो नहीं बल्कि एक ही हैं, ऐसा एकत्व स्थापित होने पर ही शिक्षा सार्थक होती है इस संपूर्ण एकत्व स्थापित करने की प्रक्रिया को ही अध्ययन कहते हैं। वास्तव में एक विद्यार्थी बनना भी बहुत सरल कार्य नहीं है। उत्कृष्ट ज्ञान ग्रहण करने की अवस्था तभी प्राप्त होगी जब विनम्रता के साथ शिक्षक या गुरु को पिता तुल्य या ईश्वर तुल्य जानकर, सदगुण सदाचार अपनाकर, कठोर परिश्रम से गुरु के साथ एकाकार होकर ,उनके मानस पुत्र बनकर पात्रता के साथ कार्य सिद्धता का प्रयत्न हो।
 इस प्रकार शिक्षक या गुरु बनना भी एक प्रकार का तप है कई गुणो को समाहित करके ही गुरुत्व प्राप्त हो सकता है। विद्या परायणता ,ज्ञान परायणता, आचार परायणता, धर्म परायणता ,समाज परायणता इनमें प्रमुख गुण हैं।शिक्षक प्रभावी तभी होगा जब शिक्षक स्वयं का अस्तित्व ही भूल जाए। छात्र और विषय के साथ जब शिक्षक एक रुप हो जाता है तो निश्चित ही शिक्षक का शिक्षण कार्य दैवीय हो जाता है। कठिन विषय को सरलतम करके समझाने की अपने अध्यापन की आदर्श स्थिति भी तभी प्राप्त होगी। 
गुरु प्रदत्त ज्ञान को अक्षर ज्ञान ,अंक -ज्ञान ,लिखने-पढ़ने तक सीमित नहीं रख सकते, यह केवल जानकारी का पुलिंदा मात्र भी नहीं, मात्र कौशल भी नहीं, रहस्यमय सिद्धांतों या रहस्यों को समझाना मात्र भी नहीं, सिर्फ कला की सृजनात्मकता और उसका आनंद लेना भी नहीं है,भले ही इन सभी को विभिन्न क्षेत्रों में सम्मिलित किया जा सकता है लेकिन गुरु का ज्ञान इससे परे है और गुरु की शिक्षा संपूर्ण जीवन को अपने में समाहित करती है।
हमारी शिक्षा भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के पूर्व जिज्ञासाओं के समाधान के लिए है। यूरोप प्रेरित शिक्षा पद्धति से उपजा वातावरण जहां बचपन नष्ट करने वाला, बच्चों को समय से पूर्व युवा करने वाला, अवसाद देने वाला, नशा , आत्महत्या, देशद्रोह , उन्मुक्त जीवन शैली ,अनाचार और शाब्दिक हिंसा पैदा करने वाला रूप हम देख चुके हैं।
भारत में ज्ञान परंपरा का एक समृद्ध इतिहास रहा हैं तथा अर्जित ज्ञान के लिए गुरु तत्त्व का जीवन मे पदार्पण आवश्यक है 
इसीलिए भारतीय परंपरेनुसार गुरु के लिए प्रार्थना है-

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया ।
 चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
 "अज्ञान के अंधकार को दूर कर, ज्ञान की ज्योति से आंखों को खोलने वाले गुरु को मेरा नमस्कार है। "
 भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही गुरु परंपरा का विशेष महत्व रहा है। समर्थ गुरू,समर्थ राष्ट्र की भावना से भारतीय शिक्षण मंडल कार्य करता है। समाज के मन में  गुरु के प्रति श्रद्धा परम आवश्यक है।
और यह श्रद्धा विद्यार्थियों के मन में स्थापित करना आज की परिस्थितियों में प्रासंगिक है। जिससे वर्तमान में शैक्षणिक संस्थाओं के वातावरण में अकल्पनीय परिवर्तन आ सकता है।

महर्षि वेदव्यास भारतीय संस्कृति की गुरु परंपरा के प्रतीक हैं। इसलिए भारतीय शिक्षण मंडल, गुरु परंपरा के पुनर्जीवन के लिए महर्षि वेदव्यास जी के जन्म दिवस आषाढ़ मास की पूर्णिमा को व्यास पूजा के रूप में प्रतिवर्ष संपूर्ण भारत में यह कार्यक्रम आयोजित करता है जिसका उद्देश्य एक ही है गुरु-शिष्य परंपरा का पुनः अनुसरण करते हुए हम हमारी इस आध्यात्मिक आधारशिला का पुनः स्थापन कर सकें और भारत फिर विश्व गुरु की भूमिका में आ सके।

  पंकज नाफडे
अ भा संयुक्त महामंत्री
भारतीय शिक्षण मंडल