"जज साहब, यह पैसा किसका है?" – न्यायपालिका की गरिमा और उठते सवाल
"जज साहब, यह पैसा किसका है?" – न्यायपालिका की गरिमा और उठते सवाल

सम्पादकीय लेख | Indian News Adda
"जज साहब, यह पैसा किसका है?" – न्यायपालिका की गरिमा और उठते सवाल
जब कोई आम आदमी किसी भ्रष्टाचार के आरोप में फंसता है, तो उसका घर, दफ्तर, बैंक खाता सब खंगाल दिया जाता है। हर नोट, हर दस्तावेज को उस व्यक्ति से जोड़ा जाता है। लेकिन जब यही मामला किसी न्यायाधीश से जुड़ता है, और वह सुप्रीम कोर्ट में खड़े होकर कहते हैं – “घर से मिला पैसा मेरा नहीं, यह साबित नहीं होता कि ये मेरा है”, तो लोकतंत्र की सबसे पवित्र संस्था – न्यायपालिका – पर भी सवाल खड़े होने लगते हैं।
यह याचिका जस्टिस यशवंत वर्मा ने खुद दायर की है। सवाल उठता है – क्या अब जजों को भी खुद को बचाने के लिए तकनीकी दलीलों का सहारा लेना पड़ेगा? अगर नोट आपके घर से मिले हैं, तो आम जनता कैसे माने कि वह आपके नहीं हैं? क्या अब न्याय भी वही खरीद सकेगा, जिसके पास ज़्यादा पैसा है?
आभार: न्यायपालिका की स्वतंत्रता अब भी जीवित है
इस पूरे प्रकरण में एक पक्ष का धन्यवाद करना जरूरी है – यह कि हमारे देश की न्याय प्रणाली अब भी इतनी मजबूत है कि एक जज के खिलाफ भी जांच और सवाल उठ सकते हैं। मीडिया में यह मुद्दा खुलकर उठाया गया, आम जनता ने इसे नजरअंदाज नहीं किया, और न्यायपालिका की पारदर्शिता पर चर्चा शुरू हुई। यह इस बात का संकेत है कि हमारा लोकतंत्र जीवित है और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अपनी भूमिका निभा रहा है।
हम यह भी मानते हैं कि हर व्यक्ति को न्याय पाने का हक है – फिर चाहे वो आम आदमी हो या जज। इस देश में आरोप साबित होने तक कोई दोषी नहीं होता। लेकिन यही बात आम लोगों पर लागू नहीं होती क्या? जब एक गरीब व्यक्ति के पास 10,000 रुपये बिना रसीद के मिलते हैं, तो उस पर कानून की पूरी ताकत चलती है। फिर जब एक जज के घर लाखों-करोड़ों रुपये बरामद हों, तो हम "प्रेस्यूम्ड इनोसेंस" की आड़ क्यों लें?
क्या न्याय व्यवस्था अब भी निष्पक्ष है?
न्याय व्यवस्था पर जनता का भरोसा लोकतंत्र की नींव है। अगर वही हिलने लगे, तो देश का पूरा ढांचा चरमरा सकता है।
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अगर पैसा जज का नहीं, तो किसका है?
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क्या जज साहब इतने अनजान हैं कि उन्हें यह भी नहीं पता कि उनके घर में किसका पैसा रखा गया है?
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क्या यह मान लिया जाए कि अब जज भी "पावरफुल लॉबी" का हिस्सा बन चुके हैं?
अगर इस सवाल का संतोषजनक जवाब न मिला, तो न्यायपालिका की गरिमा पर हमेशा एक दाग बना रहेगा।
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केंद्र में सवाल, जवाब ठंडे: यह सिर्फ एक व्यक्ति की ईमानदारी का सवाल नहीं है, बल्कि पूरी न्याय प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गिरी छाया है।
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जवाबदेही का रिक्त स्थान: जब तक जांच और सजा का फख्र जिम्मेदारी के साथ नहीं निभाया जाएगा, सिस्टम में सुधार दूर की कौड़ी बना रहेगा।
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सार्वजनिक निगरानी चाहिए: अब समय आ गया है कि न्यायपालिका और जांच एजेंसियों की पारदर्शिता, जवाबदेही और स्वतंत्र निष्पक्षता से हर स्तर पर निगरानी एवं सुधार किये जाएं।
अब जनता चुप नहीं रहेगी
हम इस देश की न्याय प्रणाली को भगवान का रूप मानते आए हैं। लेकिन अगर वही भगवान भ्रष्ट दिखने लगे, तो श्रद्धा टूटती है। यह कोई व्यक्तिगत हमले का मामला नहीं है, यह पूरे सिस्टम की जिम्मेदारी और जवाबदेही का सवाल है।
भारतीय न्यायिक व्यवस्था देश की अंतिम उम्मीद है। उसकी पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिकता की रक्षा सर्वश्रेष्ठ प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि “कानून के राज” में सबका भरोसा बरकरार रहे — चाहे वो जज हों, वकील हों या आम जनता
Indian News Adda यह स्पष्ट करता है कि हमारा उद्देश्य किसी संस्था को बदनाम करना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि न्याय की बुनियाद मजबूत रहे। अब वक्त आ गया है कि जजों के आचरण की भी पारदर्शी समीक्षा हो – ताकि न्याय, केवल किताबों तक सीमित न रहे, बल्कि हर नागरिक के जीवन में वास्तविक रूप से उतरे।
– Indian News Adda संपादकीय टीम
Adv. तुषार पाटील
संपादक
इंडियन न्यूज़ अड्डा