हिंदी हिंदुस्तान के माथे की बिंदी....... धर्मेंद्र श्रीवास्तव धार,

हिंदी हिंदुस्तान के माथे की बिंदी....... धर्मेंद्र श्रीवास्तव धार,

लेख-:

प्रतिमा सिंह उच्च माध्यमिक शिक्षक,

शासकीय मॉडल उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय सरदारपुर, 

लेखिका ओजस्वी कवियत्री है....

रिपोर्ट-: इंडियन न्यूज़ अड्डा जिला ब्यूरो कार्यालय धार, 

हमारी हिंदी,

हमारा अभिमान,

 "अंतरराष्ट्रीय मात्र भाषा दिवस के अवसर पर प्रकाशित लेख" ....................!!.....................!!!.......................!!! 

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लौकिक रूप से विद्याध्ययन आरंभ करना अर्थात् सर्वप्रथम अक्षरज्ञान होना ,अक्षरों का शुद्ध लेखन व स्पष्ट उच्चारण सीखना , यही शिक्षा आरंभ की आधारभूमि है । तत् पश्चात् मात्राओं का समुचित ज्ञान, छोटी व बड़ी मात्रा का सही प्रयोग बारहखड़ी के माध्यम से सीखते हैं, 

पश्चात् अक्षरों को जोड़कर शब्द निर्माण तथा शब्दों के सार्थक समूह से वाक्य निर्माण सीखते हैं ।किसी भी क्षेत्र विशेष के ज्ञानार्जन के लिए भाषाज्ञान ही आधारशिला है, 

मानव समाज अपने विचारों को अपनी भावनाओं को भाषा के माध्यम से ही व्यक्त करता है ।भाषा को भली प्रकार सीखकर ही उसी के माध्यम से किसी भी विषय का अध्ययन संभव होता है ।रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, गणित, जीवविज्ञान अथवा अन्य कोई विषय , सभी का ज्ञान प्राप्ति का माध्यम भाषा ज्ञान ही है,

भाषा आत्मा की तरह है जो लिपि रूपी देह में लिपटकर साकार हो उठती है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी व लिपि "देवनागरी" है जो बावन वर्णों, मात्राओं, अनुस्वार, अनुनासिक, हलन्त , विसर्ग जैसे अलंकरणों से सजी- सँवरी है ।इसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए वर्ण है ।पूर्णतः वैज्ञानिक भाषा हिन्दी का विशाल समृद्ध साहित्य निःसंदेह गौरव का विषय है..... 
    किन्तु आज की उभरती नई पीढ़ी में हिन्दी भाषा के प्रति उदासीनता व घोर उपेक्षा का भाव हृदय को पीड़ा से भर देता है ।इस उपेक्षित भाव के कारण आज की नई पीढ़ी में हिन्दी भाषा की जो दुर्गति हुई है,वह बहुत ही लज्जाजनक और निंदनीय है, 
    हिन्दी भाषा ज्ञान का मुख्य आधार हिन्दी विषय शिक्षण भी है हिन्दी विषय का पाठ्यक्रम मात्र एक पुस्तक तक ही सिमटा नहीं होता वरन् इस विषय के समुचित शिक्षण से छात्र शुद्ध उच्चारण, उचित स्वर ,उचित गति के साथ बोलना सीखते हैं । प्रभावी ढंग से संवाद करने में मदद मिलती है । इसी विषय के माध्यम से वे अपनी जड़ों से , विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़ते हैं । तथा उनमें राष्ट्रीय चेतना के भाव जागृत होते हैं, 
           किन्तु आज अक्सर यह देखने में आता है कि हिन्दी भाषा की उपेक्षा के कारण वे शिक्षा के स्तर में भी पिछड़ गए और अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व निर्माण से भी वंचित रह गए । अन्य देशों में उनकी शिक्षा व्यवस्था उनकी अपनी मातृभाषा में ही है ।जापान में जापानी,फ़्रान्स में फ्रैंच, चीन में चीनी ,इंग्लैंड में अंग्रेज़ी ,जर्मनी में जर्मन। फिर भारत में ही हम इतने समझदार हो गए कि अपनी ही भाषा को हेय दृष्टि से देखने लगे !!! ज्ञान किसी भी भाषा का बुरा नहीं है, किन्तु अंग्रेज़ी के पीछे भागते हुए अपनी भाषा और संस्कृति से भी दूर हो गए,

ये हमारी गुलाम मानसिकता का ही परिचायक है कि हमने अपनी श्रेष्ठ विरासत को महत्व न देकर सदैव कमतर होते हुए भी दूसरों की वाहवाही की । यह कटु सत्य है कि नई पीढ़ी की इस मानसिकता और दुर्गति में सर्वाधिक भूमिका शिक्षण संस्थानों एवं शिक्षकों की भी है । हिन्दी माध्यम के विद्यालयों के संचालक का अपने विद्यालय को अंग्रेज़ी माध्यम में परिवर्तित करने का विचार उनकी गुलाम मानसिकता एवं अल्पज्ञता का ही परिचायक है। भाषा के महत्व को न समझना, उसके प्रति उनका उपेक्षा भाव, अधूरा ज्ञान विद्यार्थियों की मानसिकता को प्रभावित करता है । जिससे आज की पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग न अंग्रेज़ी का हो सका और ना हिन्दी का रह पाया।भाषा का स्तर गिरता चला गया ।परिणामस्वरूप हम अपनी जड़ों से दूर हुए और हमारा सांस्कृतिक पतन हुआ तथा नैतिक मूल्यों में गिरावट आई ।शिक्षक राष्ट्र निर्माता कहे जाते हैं,जो एक  ऐसी पीढ़ी का निर्माण करते हैं जो अपने परिवार, समाज व राष्ट्र के निर्माण में भी सकारात्मक भूमिका निभा सकें ।किन्तु आज उनका भी भाषा की व्याकरणगत अशुद्धियों पर ध्यान न देना आश्चर्य को जन्म देता है। उनका भी अशुद्ध लेखन, मात्रा परिवर्तन के महत्व को न समझना ,मात्राओं की गलती से होने वाले अर्थों के अनर्थ को न जानना एक विडंबना है।जैसे पिता-पीता ,चिता-चीता,सुख-सूख,कुल-कूल लोट-लौट में अर्थ का अंतर मात्राओं के कारण ही है ।यदि भाषा के व्याकरण और शुद्ध लेखन का कोई महत्व और आवश्यकता नहीं थी तो हमारे भाषा व्याकरणशास्त्रियों ने व्यर्थ ही श्रम  किया…।हिन्दी भाषा के प्रति उपेक्षा,उदासीनता के कारण सही शिक्षा व ज्ञान का जो अभाव एक बड़े वर्ग में देखने को मिल रहा है वह वास्तव में चिंता का विषय है ।क्योंकि ज्ञान का आधार भाषा ही है,

अतः भाषा का उचित ज्ञान व सम्मान की भावना जागृत करने में शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि है ।और यदि वही अपनी भाषा के प्रति उपेक्षा भाव रखेगा तो ना ही वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर पाएगा और ना ही विद्यार्थियों में अपनी भाषा,संस्कृति व साहित्य के प्रति संवेदना व गर्व जागृत कर सकता है, 
भारत का जनमानस यह स्वीकार कर चुका है कि हिंदी भारत की आत्मा है और बिना आत्मा के देह का अस्तित्व नहीं रहता।इसीलिए किसी अन्य भाषा का नहीं अपितु हिंदी दिवस मनाया जाता है।हमारे चारों ओर का परिवेश हिन्दी का ही है,उसी में हम स्वयं को व्यक्त करते हैं ,उसी से हमारी उन्नति और विकास संभव है, 
बेल्जियम के मिशनरी फ़ादर कामिल बुल्के जिन्हें वर्ष 1974 में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था ,वे कहा करते थे कि,

“संस्कृत महारानी है ,हिन्दी बहुरानी है,और अंग्रेज़ी नौकरानी है”
हिन्दी लेखन एवं उच्चारण की अशुद्धियों पर ध्यान देने पर जब भौतिक,रसायन, गणित स्नातकों से यह प्रतिउत्तर मिलता है कि आप हिन्दी वाले हैं, हम नहीं । तो उन विविध विषयों के स्नातक वर्ग से यह प्रश्न है कि उनकी भाषा क्या है?? न हिन्दी न ही अंग्रेज़ी…. न घर के न घाट के, 
    सही अर्थों में मानव होने के लिए मानव शरीर में जन्म लेना ही पर्याप्त नहीं है ।उसके लिए साहित्य,संगीत, व कला का ज्ञान होना आवश्यक है ,जिसकी आधारशिला व्याकरणगत शुद्ध भाषा है,

वही पूर्ण मानव है……
“साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुःपुच्छविषाणहीनः।”
    अर्थात् जो मनुष्य साहित्य,संगीत व कला से वंचित होता है वह बिना पूँछ तथा बिना सींगों वाले साक्षात् पशु के समान है ।
          भाषाएँ राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती हैं,अतः यह हमारा दायित्व है कि हम आने वाली पीढ़ी में अपनी भाषा, संस्कृति व साहित्य के प्रति सम्मान व संवेदना के भाव जागृत करें तथा राष्ट्रीय चेतना के भाव भरें, अन्यथा स्वयं को राष्ट्र निर्माता के पदक से सुशोभित करना छोड़ दें ।