“जब धमाके गूंजे थे… और अब सन्नाटा न्याय का हो गया है”

“जब धमाके गूंजे थे… और अब सन्नाटा न्याय का हो गया है”

“जब धमाके गूंजे थे… और अब सन्नाटा न्याय का हो गया है”

“जब धमाके गूंजे थे… और अब सन्नाटा न्याय का हो गया है”

लेखक: इंडियन न्यूज़ अड्डा टीम
श्रेणी: राष्ट्रीय सुरक्षा | न्याय व्यवस्था | सामाजिक पीड़ा

अब लगता है, न्याय भी WhatsApp की तरह हो गया है –
"ब्लू टिक तो है, पर जवाब नहीं आता!"
यह सोचनीय है की न्याय प्राप्त करने के लिए आपका अमीर होना जरुरी है, वर्ना न्याय मजाक है, 
अगर आप गरीब हैं - न्याय महंगा है
अगर आप आम आदमी हैं - न्याय धीमा है
अगर आप पीड़ित हैं - न्याय अनिश्चित है
अगर आप अपराधी हैं - न्याय में खामियाँ मिल जाएंगी
जब अदालतें कहें, “न्याय चाहिए, पर सबूत कहां है?”,
तो लोकतंत्र खुद खामोश हो जाता है।

इंसाफ का इंतजार, या सिस्टम का मखौल?
19 साल बाद जब कोर्ट कहता है, "सबूत नहीं, सब बरी," तो यह व्यवस्था का मखौल नहीं तो और क्या है? हमारी जांच एजेंसियां बम के प्रकार तक का पता नहीं लगा पाईं, लेकिन गलत लोगों को 19 साल जेल में सड़ाने में कामयाब रहीं। क्या यह इंसाफ है या मजाक? और जब सुप्रीम कोर्ट कहता है, "बरी हुए लोग जेल नहीं जाएंगे, लेकिन फैसला नजीर नहीं बनेगा," तो यह किसे मूर्ख बनाया जा रहा है—पीड़ितों को, जनता को, या खुद को?

"7 मिनट में 7 धमाके, 189 लाशें और 800 चीखें"
11 जुलाई 2006 को मुंबई की भागती-दौड़ती लोकल ट्रेनों में जब एक के बाद एक सात बम फटे, तो पूरा देश दहल उठा।
वो धमाके सिर्फ पटाखे नहीं थे — वे चीखते सवाल थे कि आखिर हम कितने सुरक्षित हैं?

आज, 18 साल बाद जब बमों की जगह कोर्ट की घंटी बजती है, तो फैसला आता है —

“12 में से कई आरोपी बरी हैं, क्योंकि सबूत पर्याप्त नहीं हैं।”
और जनता पूछती है —
❗ "तो फिर 189 लोग किसने मारे?"

न्याय नहीं, नाटक ....
जिन 12 लोगों पर केस चला, उनमें से: कुछ को 2015 में दोषी ठहराया गया (5 को फांसी, 7 को उम्रकैद)  लेकिन 2023 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने 5 को बरी कर दिया बाकी की अपीलें लंबित हैं, या प्रक्रिया में हैं

बरी हुए आरोपी, बिखरी व्यवस्था, और अधूरी न्याय की तलाश - एक दर्दनाक इतिहास

11 जुलाई 2006 की शाम, मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात सिलसिलेवार बम धमाकों ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। इन हमलों में 189 लोग मारे गए और 800 से अधिक घायल हुए। यह भारत के सबसे भीषण आतंकी हमलों में से एक था, जिसने मुंबई की रगों में दहशत और दर्द भर दिया। 19 साल बाद, 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मामले में दोषी ठहराए गए 12 आरोपियों को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ ठोस सबूत पेश करने में पूरी तरह विफल रहा।

यह फैसला न केवल कानूनी, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से भी कई सवाल खड़े करता है। अगर ये 12 लोग दोषी नहीं थे, तो आखिर इन धमाकों का जिम्मेदार कौन है? क्या यह राजनीतिक उदासीनता का परिणाम है या हमारी न्यायिक और जांच व्यवस्था की खामियों का नतीजा? पीड़ितों को न्याय कब और कैसे मिलेगा? और सबसे बड़ा सवाल—ऐसे कितने मामले हैं जहां पीड़ित आज भी इंसाफ के लिए भटक रहे हैं?

❓ तो दोषी कौन है?
= कोर्ट: “ATS की जांच में खामियां थीं”
= अभियोजन: “गवाह पलट गए”
= आरोपी: “हमें जबरन फंसाया गया”
= सरकार: “हम देख रहे हैं”
= और पीड़ित? 
 “हम देख नहीं पा रहे हैं, बेटा मर गया... आंखें सूख गईं।”

 क्या ये राजनीतिक उदासीनता थी?
हां, शायद।   एक बार मीडिया हेडलाइन बनी  फिर नेताओं ने मुआवजे का चेक पकड़ा दिया  जांच एजेंसियों ने "क्लोजर रिपोर्ट" की तरह केस फाइलें बंद करने की तैयारी की पाकिस्तान पर आरोप लगाकर "राष्ट्रीयता" का रिबन भी बांध दिया गया
पर असली सवाल —  "क्या राष्ट्रीय सुरक्षा और न्याय सिर्फ चुनावी मुद्दा है?"

 क्या ये फटी हुई व्यवस्था का नतीजा है?
बिलकुल।  जब सबूत इकट्ठा करने में लापरवाही होती है।  जब कबूलनामे टॉर्चर से निकलवाए जाते हैं
जब फॉरेंसिक नहीं, फिक्शन पर केस चलते हैं, तो फिर अदालत सिर्फ यही कहती है — "संदेह का लाभ आरोपी को मिलता है"
और जनता को? "संदेह का बोझ जिंदगी भर उठाना पड़ता है"

ऐसे और कितने केस? जहां इंसाफ अधूरा रहा?
=मुंबई ट्रेन ब्लास्ट अकेला ऐसा मामला नहीं है। भारत में कई आतंकी हमलों में पीड़ितों को न्याय नहीं मिला:
=गोधरा के बाद कई मुस्लिम युवकों को सालों बाद बरी किया गया
=1993 मुंबई सीरियल ब्लास्ट: 257 लोगों की मौत हुई, लेकिन कई मुख्य आरोपी, जैसे दाऊद इब्राहिम, आज भी फरार हैं।
=अजमेर दरगाह ब्लास्ट में कई दोषी छूट गए
=2008 दिल्ली ब्लास्ट: इंडियन मुजाहिद्दीन से जुड़े कई संदिग्ध बरी हुए, और असली अपराधी अब तक पकड़े नहीं गए।
=मालेगांव 2006 और 2008 दोनों मामलों में एक बार ATS और दूसरी बार NIA ने अलग-अलग लोगों को आरोपी बताया
=हाशिमपुरा नरसंहार (1987): 2018 में कोर्ट ने दोषियों को सजा दी, लेकिन 31 साल बाद
=2006 वाराणसी ब्लास्ट: मुख्य आरोपी वलीउल्लाह के खिलाफ मुकदमे वापस लेने की कोशिश की गई।पिछले साल हाई कोर्ट ने 30 ऐसे मामलों में आरोपियों को बरी किया, जिन्हें निचली अदालतों ने मृत्युदंड दिया था। कारण? झूठी गवाही, फोरेंसिक सबूतों की कमी, और भ्रष्टाचार।

❗ न्याय की गाड़ी भारत में चलती है... मगर रेलवे टाइम से नहीं, धक्का स्टार्ट से।


मुंबई ट्रेन ब्लास्ट का मामला हमारी व्यवस्था की कमियों का आईना है। यह न केवल जांच एजेंसियों की नाकामी, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और न्यायिक देरी का भी प्रतीक है। पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए हमें नई जांच, जवाबदेही, और सुधारों की जरूरत है। अगर हम अब भी चुप रहे, तो आतंकवाद नहीं, बल्कि हमारी उदासीनता जीतेगी।
मुंबई ब्लास्ट का अपराधी कौन था — ये अब सिर्फ अदालत नहीं, इतिहास भी तय करेगा।
पर अगर हम चुप रहे, तो अगला धमाका बस टाइम की बात है… और अगली बार शायद पूछने वाला कोई बचे ही ना!

✍️ लेख: Indian News Adda
 यदि आपको यह लेख पसंद आया हो, तो इसे साझा करें — क्योंकि सवाल अब भी ज़िंदा हैं, भले ही न्याय नहीं।

– Indian News Adda संपादकीय टीम

Adv. तुषार पाटील 
संपादक 
इंडियन न्यूज़ अड्डा