अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष टिकता है, 11वें वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है

अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष टिकता है, 11वें वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है

चाणक्य, महर्षि वेदव्यास, महर्षि मनु जैसे महर्षियों ने अपने-अपने ग्रंथों में व्यक्ति को सदाचारपूर्ण ढंग से धन कमाने का निर्देश दिया है, ऐसा धन जो व्यक्ति एवं उसके घर-परिवार के लिए शुभकारी हो। ऐसा धन कभी नहीं कमाना चाहिए जो अपने साथ अरिष्ट लेकर आता है। मनुस्मृति में अध्याय 4 श्लोक 174 में महर्षि मनु अधर्म से कमाए गए धन के बारे में कहते हैं......

अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति। ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति।।
महर्षि मनु ऐसे अधर्मपूर्वक कमाए धन के नाश होने की समयसीमा भी निर्धारित करते हुए कहते है,
अन्यायोपार्जितं वित्तं दस वर्षाणि तिष्ठति। प्राप्ते चौकादशेवर्षे समूलं तद् विनश्यति।।

आचार्य चाणक्य ने भी चाणक्य नीति के पंद्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में कहा है....                           

करि अनिति धन जोरेउ, दशे वर्ष ठहराय। ग्यारहवें के लागते, जडौ मूलते जाय।।

यानी अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक से अधिक दस साल रुकता है और ग्यारहवें साल लगने पर समूल ब्याज सहित नष्ट हो जाता है।

कौन सा धन है सुखदायक - एक आम मनुष्य धार्मिक ग्रंथों, वेद, पुराण में वर्णित गूढ़ रहस्यों से उतना परिचित नहीं है जितना कि धर्मशास्त्रों के शोधार्थी। साधारण आदमी की सुविधा के लिए धर्म मीमांसा एवं नीति शास्त्रों की रचना की गई है, जिनमें बताया गया है कि कौन से प्रकार का धन अर्जित करना चाहिए। ऐसे धन कमाने में जिससे मन प्रसन्न होता हो, जिसमें किसी तरह का डर न हो, जो आत्म प्रतिकूल न लगता हो, जिससे किसी का नुकसान न होता हो, जिससे किसी को कष्ट न होता हो, जो किसी से छीना गया न हो, ऐसा परिश्रम से कमाया हुआ धन सदा सुखदायक, परमानन्द देने वाला और कल्याणकारी होता है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं कि धन वहीं अच्छा होता है जो अपने परिवार और समाज के लिए सुख पहुंचाने वाला हो। यानी सात्विक धन ही सात्विक वृत्तियों और शुभ गुणों को पैदा कर सकता है, असात्विक (गलत तरीके से कमाया) धन शरीर में रोग, मन में अशांति और बुद्धि को भ्रमित करने वाला होता है।